Monday, January 26, 2009

जश्न कहाँ अब ?

वो रात क़यामत वाली थी, अब दिन भी गजब के आते हैं,
उस दिन की मिली इस आज़ादी के, गीत अभी तक गाते हैं,

सूरज निकला था आधी रात, बिन बादल के, बिन बरसात,
उस दिन था कुछ जोश नया, अब होश कहीं खो जाते हैं,

कुछ रीत बनी, दस्तूर बने, ख्वाब सा हर एक दिल में सजा,
उन ख़्वाबों के हसीं गुलिस्तान, बस ख़्वाबों में ही लुभाते हैं,

फरेबी हुआ सियासत का मुलाजिम, मुट्ठी गर्म करने लगा,
लूटना ही है अगर वतन फिर, कसमें क्यूं झूठी खाते हैं,

रफा करो उस हर दीमक को, जो रवा रस्म कर पाया नहीं,
खिला गुलिस्तान सहरा बनाकर, खुशियाँ जहां की पाते हैं,

वो रात क़यामत वाली थी, अब दिन भी गजब के आते हैं,
अंधी दौड़ - पैसों की हौड बस, जश्न कहाँ अब मनाते हैं ?

1 comment:

श्रद्धा जैन said...

bhaut hi bhav bheeni shrddhanjali hai beta

tum jab bhi likhte ho hamesha ghara likhte ho