जाने वो कैसे लोग थे, जिन्हें चाहते थे हम दीवानों की तरह,
जिनकी अदायें कातिल थी, वो लगते थे मासूमों की तरह।
जब थे वो साथ हमारे, हम रहते थे बहुत ही खुश,
मगर अब वो कहाँ खो गए, बुझे हुए चरागों की तरह।
रोशन थे हमारे घर, उन काली अँधेरी रातों में भी,
अब वो घर लगते हैं, खंडहर हुए मकानों की तरह।
उनका साथ भी अजीब था, कि हमारा ऐसा नसीब था,
अब जिंदगी के वो पन्ने, लगते हैं अधूरे ख़्वाबों की तरह।
कहाँ ढूंढे उन्हें अब, इधर - उधर, दर - ब - दर,
मिल जाओ कभी तो हमसे, बिछुड़े हुए अहबाबों की तरह।
NYSH निशांत
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